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मिटटी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन ...मेरा परिचय !!! :- हरिवंश राय बच्चन

Thursday, March 17, 2011

इंसान होना काफी नही है क्या???


आज जब किसी नए दोस्त ने 
मुझसे जात पूछी तो 
मन में फिर से यही दर्द घुमर आया  
इंसान होना  काफी नही है क्या????

पहले तो मैंने उसको इधर- उधर घुमाया 
किसी को चौकाने के लिए मजाक में फेंका जाने वाला जुमला दोहराया 
'दादा ने बांग्ला -देशी मुसलमान  से की है शादी 
पिता ने पारसी से 
और मै किसी christian से करूंगा शादी '
ऐसा बतलाया 

chat   पर हो रही थी बाते 
जहा दूसरे का चेहरा हम पढ़ नही पाते 

फिर भी उसके चेहरे पर आये विकृत भाव 
आसानी से पढ़ पाया 
शिष्टाचार के नाते थोड़ी देर चुप रह उसने 
फिर से वही सवाल दूसरे रूप में उठाया 
'title (उपनाम )  क्या है आपका '???

झुंझला गया था मै भीतर से 
पूछ ही बैठा की जात जानना इतना ज़रूरी है क्या 
इंसान होना काफी नही है क्या ???

मेरे बदले तेवर को भांप 
अपने सवालो को दूसरी गैर ज़रूरी कारणों में ढांप 
उसने कहा 
किसी के परिवार के बारे में जानने से उसके बारे में पता चलता है 
उसके व्यक्तित्व का आईना होता है 

मैंने गुस्से में अपने परिवार की वीर गाथा बतलाई 
परदादा से लेकर मेरी पीढ़ी तक 
किसने क्या क्या किया 
सारी जानकारी उसके मुह पर दे मारी 

उसकी जिज्ञासा तो हो गयी शांत 
पर मै अशांत 
मुख क्लांत 
मन में वोही विचार फिर से आया
अपनी इन्ही आँखों से देखा है मैंने 

बाबरी -राम मंदिर विवाद
गोधरा से शुरू हुआ एक वीभत्स उन्म्माद
........................
..........................
जातिगत दंगे फसाद
थोथे अहंकार के पीछे होने वाले रक्त-पात 
........................
.......................
सवर्ण होने का दंभ 
पशुता का आरम्भ 
.......................
......................
कितनी चौपालों पर 
कितनी बार 
जातिगत भेद के आधार पर 
किसी युवक को जिंदा जलाया गया है 
किसी युवती को नंगा नचाया गया है 
जिसका हर बुद्धिजीवी भारतीय 
करता रहा है कड़ा विरोध 
नारे लगाता है 
अखबारों में लेख लिखता है 
coffee shop में बैठ विवेचना करता है 
दोहरी मानसिकता की आलोचना करता है 

किन्तु उदार मानसिकता दिखाने वाले
सर्व-धर्म समभाव में आस्था रखने वाले  
हम भारतीय के भीतर 
क्या वही बर्बर पशु नही रहता है??? 
जो मौका- बेमौका 
पुरानी कसौटी पर इंसान की इंसानियत को परखता है 
और पूछता है 
क्या जात है आपकी ??? 
सच में ...शायद किसी का इंसान होना आज भी नही है काफी 

अनेकता में एकता 
सर्व-धर्म समभाव का प्रवक्ता 
अपना भारत 
कहने को तो अखंड है 
पर इसमें रहने वाले 
हम भारतीय क्या आज भी उस पुरातन मानसिकता से स्वतंत्र हैं ???











Tuesday, March 8, 2011

काश शब्द चिर नूतन हो जाते


काश शब्दों को पंख लग जाते
उन्हें नित  नए अर्थ मिल पाते
काश शब्द सारी सीमायें तोड़ बहुआयामी हो जाते 

काश शब्द 
दिल की गहराई में 
उमर-घुमर रहे लाखो 
संवेदनाओं का मर्म समझ पाते
ठीक ठीक बयां कर पाते 
हर दर्द, हर ख़ुशी 
तन्हाई, बेबसी 
मूकता - वाचालता
लघुता -विशालता 
कटुता -वाक्पटुता 
..............
............... 
एकांत , विश्रांत
क्रोध, ईर्ष्या
प्रेम-विछोह 
वासना-मोह 
.......................
......................
मन की गंगोत्री से फूटने वाली 
असंख्य -अजस्र स्रोत को  खुद में समा पाते 

पर शब्द !!! 
बड़े बेचारे हैं 
नपुंसक हैं
किस्मत के मारे हैं

बंधे -बंधाये अर्थ
जो थोप दिए हैं हमने उसपर
लकीर के फ़कीर की तरह ढोते रहते हैं
नित नई भावनाओं के अथाह सागर को 
उसी पुरानी तराजू में तौलते हैं

हारता हूँ मै हर बार 
कितने मौको पर कितनी बार 
जब भी दिल के समर भूमि में 
चल रही लड़ाई का चित्रण करने बैठा हूँ
तो शब्दों की तलवार कुंद हो जाती है
दो चार दाव में ही छिटक कर टूट जाती है 
अंतस का बिम्ब कहाँ कोरे कागज़ पे आ पाते हैं  
विशाल महल का चित्र बनाते बनाते 
बस भग्नावशेष ही उकेर पाते हैं  

जो जीवन हर पल बदलता है 
पुराना छोड़  नित नूतन होता है 
भला उसकी गाथा 
थिर और मृत साज पर कैसे गाई जा सकती है ???
लाख कोशिशो के बावजूद 
वो सुगंध कहाँ आ पाती है ???


काश शब्द चिर नूतन हो जाते 
काश शब्द दर्पण हो जाते 
हो पाती उनमे भी प्राण प्रतिष्ठा 
जीवन का राग वो भी गुनगुनाते 

तब हर काव्य ऋचाये होती 
हर कहानी सजीव गाथाएं होती 
तब शायद हर शब्द प्राणमय होता  
उनके भीतर भी  कोई जीवन हंसता 

Monday, March 7, 2011

उसका जाना एक पहेली था


उसका जाना एक पहेली था 
ठीक उसके आने की तरह
जो मै कभी सुलझा नही पाया 

रेशमी महीन अदृश्य धागों से 
जो बुना था स्वप्न जाल दोनों ने मिलकर, 
बुनते बुनते 
उलझ कर रह सा गया 

उसका आना वसंत जैसा था 
और जाना पतझड़ की तरह 
पीछे यादो के पीले सूखे पत्ते 
और गर्मियों की नीरस दुपहरी छोड़ गया 

उसका आना बादलो का गुबार था 
जो नेह बरसाकर 
रीत गया 
और जाना कुछ ऐसा था 
कि तन -मन -जीवन को आंसुओ से सींच गया 

उसका आना एक नए जीवन की शुरुआत थी 
उसका जाना 
मानो एक जीवन शुरू होकर बीत गया 



 

Friday, February 18, 2011

क्या चाँद को मुझसे प्यार है ???





आज फिर पूरे चाँद की रात आई है 
मेरे मन में अजब सी  खुमारी छाई है 

खुले आकाश के नीचे घास  हरी चादर पर बैठ 
मै चाँद को देखता रहा या चाँद मुझे???
नही जानता !!!
बस इतना जानता हूँ 
कि चांदनी की शीतलता मुझे छूती है 
मेरे सारे ताप को शीतल करती है 

चाँद मेरे लिए क्या है ???
क्या महबूब का चेहरा है ???
बच्चो का चंदा मामा ????
या फिर मेरा बाल सखा है ???
नही जानता !!!
बस इतना जानता हूँ 
कि मेरी जात-पात, धर्म, शिक्षा,योग्यता जाने बिना 
उसने मुझे अपनाया है 
मुझे हर हाल में गले लगाया है 

क्या चाँद को मुझसे प्यार है ???
नही जानता !!!
बस इतना जानता हूँ
कि जब भी दुनिया के उहा-पोह से उबकर 
अपने अन्दर और बाहर के अँधेरे से घबराकर 
आसमान में देखता हूँ 
तो चाँद सारा अँधेरा दूर करने को 
मन का कोना -कोना रोशन करने को 
मुझे जगमगाने को , दुलराने को 
आकाश के किसी कोने में बैठा मुस्कुरा रहा होता है :)))

 


Thursday, February 17, 2011

लाजवंती

( लाजवंती : एक पौधा जिसके पत्तो को हाथ लगाते ही वो शर्माकर सिकुड़ जाती है )

photo

Lajwanti (Hindi: लाजवंती)

कभी देखा है लाजवंती को जंगल में
लाजवंती चुपके से आसमान में अपने पर फैलाती है 
अपनी बाहे खोल आकाश को गले लगाती है 
हवाओ के संग डोलती है 
ओस में नहाती है 
अकेले में गुनगुनाती है 
तितलियों के संग करती है अटखेलियाँ 
अपने पूरे वजूद से मस्ती टपकाती है 
लेकिन जब कोई नन्हा बालक 
आश्चर्य से भरकर अपने कोमल हाथो से उसे छूता है 
कैसी हो...सब ठीक -ठाक...तोतली भाषा में हाल-चाल पूछता है 
तो लाजवंती न जाने क्यों घबरा जाती है 
झटपट नयी दुल्हन कि तरह घूंघट के पीछे छुप जाती है 
और काफी मान -मनुहार के बाद भी 
उसे अपना दोस्त न बनाती है 

बच्चा आशा से भरकर करता है इंतज़ार 
काफी देर बाद मौन में होती है कुछ बात
बच्चे का भोलापन शायद लाजवंती का दिल छू जाता है 
जब लाजवंती को हो जाता है इस बात का विश्वाश 
कि बच्चा न उसकी कोमलता को कुचलेगा
न ही उसके कोमल गात पर कोई जख्म देगा 
उसकी स्वतंत्रता और एकांत का पूरा सम्मान करेगा 
तो लाजवंती मुस्कुराती है 
हौले-हौले अपनी बाहे पसारती है 
दिल के द्वार सहज खोल नन्हे बालक को अपनाती है 

मेरी लाजवंती भी डरकर सिकुड़ गयी है
और मेरे  बाल-मन के इंतज़ार के इम्तेहाँ की घडी है 
मेरा ये इंतज़ार तुम्हे निर्भय करेगा
मेरे मन में उठनेवाले गीत जब तुम्हारा ह्रदय सुन सकेगा 
तब तुम आओगी  
अपना सारा डर छोरकर 
मुस्कुराकर गले लगाओगी 

उस दिन पूरा होगा इंतज़ार 
उस दिन जंगल सुनेगा दो प्रेमियों के ह्रदय के मिलन की किलकार !!!  

Monday, January 17, 2011

देवदार


तीन तरफ पहाडो से घिरा एक छोटा सा गाँव...यूँ तो गाँव का नाम है जगताप पुर लेकिन लोग इसे बहेलिया 
गाँव के नाम से भी जानते हैं...

जगतापपुर  के किसी भी आदमी से अगर आप पूछेंगे कि इस गाँव का नाम बहेलिया गाँव कब पड़ा तो वो 
आपको एक लम्बी कहानी सुनाने बैठ जाएगा....
दूर तक फैली हुई हिमाचल की वादियों में,घने जंगल और पानी की कलकल संगीत के बीच रचा बसा  
ये छोटा सा गाव....ज्यादा आबादी नहीं  है ...कुल ७०-८० परिवारों कि एक छोटी सी बस्ती है....पास का शहर
यहाँ १०० किलोमीटर दूर है और बाहर की  दुनिया से इस कस्बे  का नाता नहीं के बराबर है...शायद यही कारण
 है कि इस कस्बे की  खूबसूरती आज भी कुंवारी है ...
यहाँ फूल आज भी सूरज की किरणों में महकते हैं... झरनों से गिरता पानी आज भी कानो में  मधुर रस 
घोलते हैं ...पंछी  आज भी पंख पसार कर उड़ते हैं...हवाए आज भी यहाँ गाती है....

प्रकृति के बीच रहने वाले यहाँ के लोग भी बहुत सीधे सादे हैं....
मेहनत की खाने और चैन से सो जाने में विश्वास करने वाले लोगो का एक समूह...

बहेलिया गाँव के ज्यादातर लोग खेती, और जंगल के फल फूल सब्जियां बेचकर ही अपना गुजारा करते हैं... 
जंगल को भगवान् का रूप मानने वाले ये लोग कोई ऐसा काम नहीं करते जिससे कि प्रकृति देवता नाराज हो...
लेकिन एक परिवार ऐसा है...जिसे प्रकृति देवता कि कोई चिंता नहीं है ...चिडियों को  मांस के लिए और पैसो 
के लिए पकडनेवाला बहेलिया परिवार...जो कही बाहर से आकर बस गया था इस गाव में....

लोग कहते हैं कि ४० साल पहले एक बूढा यहाँ आया था ....उसका कोई नहीं था... तो यहाँ के लोगो ने 
उसे अपना लिया...लेकिन ये शहर से आया हुआ बूढा आदमी बहेलिया था ...

वो दिन भर जंगलो में एक जाल, रस्सी और चिड़िया को खिलाने के लिए दाने लेकर जंगल में घूमता रहता....
और शाम को तीतर- बटेर, पपीहा, कोयल,तोता, बनमुर्गी, लालसर और न जाने कितने रंग बिरंगे पंछी अपने 
टोकरेनुमा पिंजरे में भर लता....
शुरू शुरू में तो गाँव के  पुजारी जी ने उसका विरोध किया...लेकिन उस बूढ़े को और कुछ आता ही नहीं था...वो 
चोरी -छुपे पंछियों को पकड़ कर शहर ले जाकर बेचता रहा...पंडित मरने के बाद धीरे- धीरे कस्बे वालो ने 
इस परिवार और उसके व्यवसाय को स्वीकार लिया था ...

आज उस बूढ़े बहेलिये के दर्जन भर बेटे -पोते अपने पुश्तैनी धंधे को बड़े शान से आगे बढ़ाते दिखते...
रोज दर्जनों चिड़िया पकड़ लेते हैं और हफ्ते -दस दिन में शहर से आनेवाले व्यापारी को बेच देते हैं...उनकी आय
का ये बहुत अच्छा साधन है ...

बहेलिया परिवार में सबसे छोटा लेकिन सबसे चतुर बहेलिया है माधो....

माधो ने जब पहली बार ४ साल कि उम्र में अपने दादा के साथ आँगन में एक तीतर को खेलते खेलते पकड़
 लिया था ...तो दादा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया था...उस दिन उसने घोषणा कि थी कि उसका सबसे छोटा 
पोता माधो सबसे बड़ा बहेलिया बनेगा और उसके खानदान का नाम खूब रोशन करेगा...

माधो बहेलिये की बात ही निराली थी... बचपन से उससे चिड़ियों कि दुनिया बहुत अनोखी लगती थी.... 
दूर आकाश में उडती हुई चिड़िया देख वो अपने दादा जी से पूछता....दादा .....ये चिड़िया कहाँ से आती है ...
दादा जी कहते कि परियों के देश से...   
माधो पूछता : तो फिर हम उन्हें पकड़ क्यों लेते हैं...
दादा जी हंसकर कहते कि क्योकि चिड़िया बहुत भोली और दिल की सच्ची  होती  हैं... उनके साथ रहते रहते
हमारी किस्मत भी उनके जैसे सोने की हो जाती है... 

हुलसकर माधो पूछता....दादा जी मुझे चिड़िया का देश देखना है...मुझे ले चलो वहाँ ...
दादा जी कहते....किसी दिन तू खुद ही बड़ा होकर चले जाना... और उस देश कि सोनाचिड़ी   से शादी भी कर 
लेना... 

कुछ तो दादा जी की रंग-बिरंगी कहानियों का असर था और कुछ परिवार की परंपरा का ....
माधो की दुनिया, उसके सपने, उसकी बाते, उसकी सोच... सब चिड़िया और उनकी दुनिया के आसपास 
सिमटती चली गयी ....फिर तो दादा जी के साथ माधो ने चिडया पकड़ने कि सारी विद्या लड़कपन में ही सीख ली
... कैसे तरह तरह की बोली बदलकर, कभी डराकर तो कभी पुचकार कर पंछियों को बस में करना है.... कौन 
सा पंछी किस महीने में कहाँ मिलेगा....कौन सा पछी किस महीने में पेड़ की कोटर में दुबका मिलेगा.... कौन
रात के चौथे पहर में दो पल को आँख झपकेगा और उसकी गर्दन धर दबोचनी है...

हर पंछी कि बोली, स्वाभाव, पसंद -नापसंद ..एक - एक बात को जिस लगन से माधो ने सीखा ....
उस लगन ने उसे १५-१६ का होते होते अपने दादा से भी कही अच्छा और बड़ा शिकारी बना दिया था ...

प्रवासी पक्षियों का झुण्ड जब आता तो उसके सारे दुसरे रिश्तेदार जाल बनाने और बिछाने में ही परेशां रहते,
जबकि माधो एक पहर में ही टोकरा भर पंछी  लिए जंगले  से मुस्कुराता हुआ वीर योद्धा की तरह सीना फुलाए 
बाहर  आता...
माधो तो पंछियों के साथ रहते रहते...उन्ही की दुनिया का  हो गया था.... उनकी भाषा समझते समझते 
उनका मन भी समझने लगा था... कभी कभी जब टोकरे में बंद किकियाते पंछियों के रोने की आवाज़ सुनता 
तो उसके मन में पल भर को कोई कटार चुभती थी....लेकिन अगले ही पल किसी गीत में, किसी फ़साने में 
उसना जवान मन रम जाता और फिर बात भूल सी जाती...

बचपन की बाते और सपने बचपना ही होते हैं.... माधो को भी इस बात का यकीन हो चला था..... 
जब उसने अपने १८ वे सावन में कदम रखा तो अपने बूढ़े बाबू जी को बड़े शान से वचन दिया कि अब
वो शिकार करना छोड़ कर घर में आराम करें,माधो अकेला काफी है घर चलाने के लिए.... 
जिन पंछियों के लाल पीले सुनहरे पंखो को देखकर वो आत्ममुग्ध सा रह जाता था...अब वो रंग मायने खोने
लगे थे...अब चिड़िया देख कर उसके मन में उस चिड़िया का दाम और वजन का अनुमान घूमने लगता था...

वक़्त ने उसे एक शातिर और बेरहम शिकारी बना दिया था... और उससे इस बात का फख्र था... 
एक बार जब उसकी माँ को बुखार था तो इलाज के पैसे जुटाने के लिए उसने तीन दिन तक जंगल में दिन- रात
शिकार किया था...और ३०० से जयादा चिड़िया मेले में बेच आया था....  
उसके अपने ही परिवार के कुछ दुसरे  बहेलिये उसके हुनर से जलते भी थे...

माधो कि ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक चल रहा था ...सुबह होती...घर से जाल,टोकरा, दाने रस्सी और अपनी 
बांसुरी लेकर निकल जाता....दिन भर जंगल में राज करता..शाम ढले थक कर घर आ जाता....माँ के हाथ 
की  रोटियाँ खाता ,चौपाल पे बैठ कर हसी- ठट्ठा करता और टूटी खटिया पर बेखबर सो जाता.... 

लेकिन एक दिन जंगल में कुछ ऐसा हुआ कि माधो की ज़िन्दगी बदल गयी ....

घने जंगले में जाल बिछाकर दोपहर को सुस्ता रहा था माधो... पोटली में बाँध कर लायी रोटी खाने  के बाद
आलस भगाने के लिए उसने अपनी बांसुरी निकाल  ली और छेड़ दी एक मधुर तान.... 
दूर दूर तक वादियों में गूँज रही थी माधो की  बांसुरी कि सुरीली तान...
अचानक माधो को लगा कि उसके कंधे पर कुछ गिरा...उसने आँखे खोली तो देखा एक चिड़िया उसके कंधे पर 
आकर बैठी है...उसकी आँखे फटी कि फटी रह गयी .... ये  सोनाचिड़ी थी...हाँ हाँ...बिलकुल सोनाचिड़ी ही थी...
माधो की आँखे धोखा  नहीं खा सकती...लाखो चिड़ी देखे हैं उसने लेकिन इसके जैसा कोई नहीं था...पंख सुनहरा
...आँखे सुनहरी ....चोंच सुनहरा....
माधो थोड़ी देर के लिए अपने बचपन के सपनो में खो गया.... दादा जी ने जैसा बताया था बिलकुल वैसी 
ही थी  ये सोनाचिड़ी...

माधो ने डरते डरते चिड़ी को हाथ लगाया....पाता नहीं क्यों आज उसके हाथ काँप रहे थे....हजारो चिड़िया पकड़ने
वाले हाथ आज काँप रहे थे.... उसने थरथराते हाथो से चिड़िया के पर को हौले से सहलाया....चिड़िया कि आँखों में 
एक मुस्कराहट कि रेखा उभर आई....माधो भी हंसा...चिड़िया ने अपनी सुनहरी चोंच उसकी बांसुरी पर ठकथकाई .
माधो समझ गया कि सुनहरी चिड़िया उसकी तान सुनकर आई है....उसने बांसुरी उठाई और पूरे  उत्साह से एक 
नयी  तान छेड़ दी... माधो बजाता  रहा और चिड़िया सुनती रही ... शाम ढलने को आई... माधो कुछ कहता इससे
पहले चिड़िया मुस्कुराई और उसने माधो की  नाक पर चोंच  मार कर लाड दिखाया और उड़  चली .... ढलते सूरज 
की सुनहरी किरणों में देखते ही देखते ओझल हो गयी

सारी रात माधो उस सोनाचिड़ी के बारे  में सोचता रहा....क्या सोनाचिड़ी परीलोक से उसके पास आई है....इतनी 
प्यारी चिड़िया उसने कभी नहीं देखी थी...

अगले दिन अहले सुबह वो जंगल पहुंचा और बांसुरी की तान छेड़ दी... दोपहर तक बजाता रहा बजाता रहा ...पर
सोना चिड़ी नहीं आई ...और जब वो थक कर हताश होकर अपनी रोटी खाने बैठा तो देखा कि चिड़ी उसके कंधे पर
आ बैठी है और मुस्कुराती  हुई मानो पूछ रही हो...'अकेले अकेले खाओगे दोस्त..मुझे नहीं खिलाओगे....

फिर दोनों ने साथ खाना खाया...पहली बार बाजरे कि रोटी खाते हुए उस विशाल देवदार के पेड़ के नीचे दोनों का 
परिचय हुआ... सोना चिड़ी ने अपना नाम लाली बताया.... माधो हंसने लगा..बोला कि तुम तो सुनहरी हो...
लाली नाम किसने रखा ...अच्छा नहीं लगता...मै तो तुम्हे सुनहरी  बुलाऊंगा....

दोनों रोज जंगल में मिलने लगे... दोनों में से किसी को भी पता नहीं होता था कि वो कब एक दुसरे से मिलेंगे....
लेकिन हर दिन मुलाकात हो जाती थी...हाल समाचार और इधर -उधर कि बात हो जाती थी....दोनों को एक दुसरे 
kee आदत सी  होने लगी थी...

सुनहरी ने एक दिन माधो से कहा कि तुम बांसुरी बजाते हो तो मेरे प्राण में समां जाती है ये तान....और माधो ने 
कहा कि जब तुम्हारी आँखों में झांकता हूँ तो मन आकाश की तरह शांत होने लगता है....ऐसा लगता है कि ठन्डे 
पानी के झरने के  नीचे बैठकर नहा रहा हूँ.... सुनहरी चिड़िया अपनी मधुर आवाज में खिलखिला उठी ....

उस दिन दोनों में से किसी को भी पता नहीं चला....लेकिन उस देवदार के पेड़ को ये बात अच्छी तरह समझ में आ
गयी थी कि सुनहरी को माधो से और माधो को सुनहरी से प्यार होने लगा है .... देवदार ने मुस्कुराकर अपने पत्ते
हवा में लहराकर शरारत से दोनों को देखा था...

दिन बीतते गए .. जंगल माधो और लाली के प्यार को परवान चढ़ते देखता रहा.... माधो के बांसुरी कि मिठास 
दिन-ब-दिन बढती जा रही थी.... और सुनहरी के बोली की खिलखिलाहट चटख होने लगी थी...

कभी कभी वो हंसकर पूछती 'माधो..तुम्हे मेरे लिए गीत गाने में थकान नहीं होती....
माधो कहता... तुम्हारे लिए गाने में,बांसुरी बजाने में सुकून मिलता है.... सारी दुनिया मेरी तारीफ़ करे  लेकिन
अगर तू न सुने मेरी बांसुरी तो मुझे अधूरा लगता है...
दोनों जंगल में घुमते ...कभी सुनहरी शरारत पे उतर आती...कहती ..ऐ माधो,तेरे घुंगराले बालो में अपना घोसला
बना लूं...??? माधो अपने बाल धरती पर बिछा देता और कहता....बना ले,फिर तुझे सर पे बिठाकर घूमता रहूँगा....

कभी माधो रंगबिरंगे फूलो को  तोड़ कर उनका रंग सुनहरी के पंखो पर लगा देता और कहता....आ तुझे सतरंगी 
बना दूं...और सुनहरी अपने पंख रंगवाकर निहाल सी हो जाती....

दोनों के दिल में प्यार गहराने लगा था...एक दुसरे की आदत होने लगी थी...लेकिन अभी उनका प्यार वादों और हक
जताने के छोटे दायरे से आज़ाद था...

एक दिन आकाश में काले बादल छाये..और बरसना शुरू हुए तो फिर थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे... सात दिन
तक मुसलाधार बारिश होती रही.... आदमी से लेकर जानवर तक सब अपने अपने घरो में दुबके हुए थे... 
माधो अपनी  खटिया  पर पड़ा -पड़ा छटपटाता   रहता... बादलो को कोसता...आसमान के साफ होने की दुआ करता..
उसके मन में बस एक ही बात घूम रही थी कि कब बारिश रुके और वो जाकर अपनी सुनहरी से मिल पाए....
आठवे दिन...नदी नाले फांदता, कीचड से बचता-बचाता देवदार के पास पहुंचा....और सुनहरी की राह देखने लगा....
शाम होने तक सुनहरी नहीं आई.... माधो का दिल रुआंसा हो गया....उसे हैरानी भी होती कि आखिर क्यों वो इतना 
तड़प रहा है.... वो जाने लगा कि उसे जानी पहचानी कुहुक सुनाइ  दी... उसने हाथ बढाकर सुनहरी  को अपने बाजुओ 
पर बिठा लिया...और कहने लगा....सुनहरी तुमको देखे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था...ऐसा लग रहा था कि
जीवन उसी जगह  रुक गया हो जहाँ  सात दिन पहले हमने छोडा  था... सुनहरी ने भी कहा कि उसका भी कुछ ऐसा 
ही हाल था....तुमसे मिले बिना मुझे रोना आ रहा था.... तुम्हारी बांसुरी की तान सुने बिना सब कुछ अधूरा सा लगता
था...

और उस भीगी -भीगी शाम में दोनों की  आँखे भर आई थी ....दोनों ने एक दुसरे को जी भर कर देखा....सात दिनों से
जमा की हुई बात-चीत और क़िस्से कहानिया एक -दुसरे को सुनाये .... एक दुसरे से कहा कि अगर हम हमेशा साथ
रहे तो कितना अच्छा होगा ...दोनों ने भीगे और पुलकित मन से इस बात को स्वीकार किया था...

फिर तो माधो के मन में सपने पंख लगाकर उड़ने लगे थे... उसने सोच लिया कि अब सुनहरी को वो अपने से एक 
पल भी दूर नहीं करेगा.... उसे अपने घर लाएगा.... उसे बाकी चिड़ी की तरह बांस के टोकरे में नहीं बल्कि  सोने के 
पिंजरे में रखेगा...अपनी खटिया के सिरहाने में ....उसके लिए मनपसन्द फूलो के बीज और दाने लाएगा.... 
फिर दोनों साथ रहेंगे... जब जी चाहेगा वो सुनहरी को बांसुरी सुनाएगा...सुनहरी का जब जी चाहेगा....वो मुझे कुहुक
कर लाड कर लेगी....

माधो ने अपने इस सपने को पूरा करने के लिए दिन - रात एक कर दिया...  अब वो सुनहरी से मिलता तब भी बेचैन
ही रहता... और पल दो पल बाद ही उससे विदा लेकर अपने काम  को निकल जाता...क्योकि उसे एक सोने का पिंजरा
खरीदना था.... जिसमे सुनहरी को हमेशा के लिए अपने पास रखना था...

महीने दो महीने बीतते -बीतते माधो ने सोने का पिंजरा खरीद लिया....हाट से दौड़ता हुआ वो देवदार के पास आया 
सुनहरी को पुकारा...सुनहरी आई ....बड़े उमंग से माधो ने उसे पिंजरा दिखाया....सुनहरी के चेहरे का रंग उतर गया 
था....पहली बार उसे माधो अजनबी लगा था... उसकी आँखों में डर उतर आया था.... जबकि माधो अपनी बातो में 
खोया हुआ था..अपनी वीर- गाथा बताने में मशगूल था कि कैसे उनसे पैसे जमा किये,कैसे सोने का इतना बड़ा और
कीमती पिंजरा खरीदा....कैसे उसकी शान बढ़ेगी जब वो सुनहरी को सोने के पिंजरे में घर ले जाएगा....लोग कैसे
उसकी किस्मत देख कर जल उठेंगे....

माधो जब अपनी प्रशंसा का पुल बाँध -बाँध कर थक गया और सुस्ताने के लिए दो पल रुका तो उसने देखा कि 
सुनहरी आज चहक नहीं रही...वो उदास है... माधो को हैरानी हुई ...उसने कहा क्या ये पिंजरा पसदं नहीं आया....
सुनहरी ने कहा नहीं....मै तुम्हारे साथ तो रहना चाहती हूँ...लेकिन इस पिंजरे में नहीं....

माधो को गुस्सा आया ...उसने सुनहरी को कहा कि शायद वो पागल हो गयी है...उससे पता नहीं कि इस पिंजरे में
रहने के लिए कितना बड़ा नसीब चाहिए...अच्छी किस्मत वालो को भी ऐसा पिंजरा नसीब नहीं होता...अब और
क्या चाहिए तुम्हे....माधो गुस्से और अहंकार में अँधा हो गया था....
सुनहरी की आँखों की कोर में आंसू उतर आये थे...उसने दबी -दबी सी आवाज में कहा 'मैंने तुम्हारा साथ माँगा था
कैद नहीं ....'
माधो चीख उठा... तो मै भी तो तुम्हे अपना साथ दे रहा हूँ जीवन भर का... ये बात क्यों नहीं समझ पा रही हो तुम !!!

चिड़िया काँप उठी...लरजते हुए उसने कहा...क्या तुम कभी ये नहीं समझ पाओगे कि पिजरा कितना भी खूबसूरत
और कीमती क्यों न हो...एक चिड़िया के लिए वो सिर्फ कैदखाना होती है....!!!

माधो जिद पर उतर आया...उसने कहा कि जो सपने हमने साथ देखे उसको पूरा करने का वक़्त आया तो तुम पीछे
हट रही हो... तुम खुदगर्ज हो...तुमने मेरी सारी भावनाओं और मेरी मेहनत को एक पल में ठुकराने  की कोशिश 
की है.... जाओ मै तुमसे बात नहीं करता....

माधो तमतमाता, पैर पटकता  हुआ अपना पिंजरा उठाकर वह से चला गया...चिड़िया देर रात तक चुपचाप उस 
देवदार के नीचे बैठी रही ...अँधेरे में उसके बहते आंसू देवदार देख तो नहीं पा  रहा था लेकिन महसूस ज़रूर कर रहा था
उस शाम ढलता सूरज, देवदार और जंगल सबने साथ मिलकर  सुनहरी के हिस्से का दर्द थोडा-थोडा रोया था ....

उस दिन के बाद सुनहरी कई दिन तक नहीं आई ...और ना ही माधो ने उसकी कोई खोज -खबर ली... माधो अपने 
गुस्से में पागल था... उन दिनों  माधो को अपने आस पास की हर चीज पर गुस्सा आता....मानो हर चीज उसे चिढ़ा 
रही हो... बात -बेबात गाव में लोगो से झगरा कर लेता... पंछी पकड़ते समय जो पंछी जयादा शोर करता...
उसकी गर्दन वहीँ मरोड़ देता... पता नहीं उसकी नफरत किससे थी...किसलिए थी ...उससे खुद नहीं पाता...लेकिन
उसके भीतर एक ज्वालामुखी उबल रहा था...

एक दिन भरी-दुपहरी माधो  देवदार के पास आया और बांसुरी बजाने लगा ....फिर अचानक उसने अपनी बांसुरी 
तोड़ डाली और फूट-फूट कर रोने लगा... भीतर दबा हुआ सारा क्रोध, सारी कुंठा , सब कुछ आंसुओ में बह गया... 
अपना सारा अभिमान छोड़कर  वो अपनी सुनहरी को पुकारने लगा... लेकिन सुनहरी का कही पता नहीं था....
सुनहरी नही आई ...माधो बेचैन रहने लगा...देवदार के पेड़ के पास वो घंटो बिताता.... सुनहरी का कोई पता नही था... 
कभी रोने लगता...कभी बांसुरी बजाता ...कभी गुस्से से भर जाता और चिल्लाता  कि  एक दिन तुम्हे अपने पिंजरे
में बंद करके रहूँगा... तुम जानती नही हो कितना बड़ा शिकारी हूँ मै...

धीरे धीरे गाँव के लोगो में भी ये बात फैलने लगी कि  माधो शिकार छोड़कर  जंगल में किसी का इंतज़ार  करता 
रहता है... देवदार के पेड़ के पास बैठा रहता है... बात फैलते फैलते उसके दादा जी तक पहुची... बूढ़े हो चुके दादा जी 
को ये बात बहुत बुरी लगी ...उन्होंने अपने पोते को बुलाया और समझाया...बेटा ज़िन्दगी में हमें भी बहुत सी चिड़िया
अच्छी लगी थी..लेकिन हम शिकारी अपने पसंद की चिड़िया पकड़ कर अपने घर में सजा लेते हैं... और तू तो हमारे
परिवार का सबसे बड़ा शिकारी है...तू क्यों उदास होता है ...क्या तुझे अपने हुनर पर शक है... क्या तू उसे पकड़ नही
सकता है... इतना सुनते ही माधो का अहंकार जाग गया...
उसने फैसला कर लिया की सुनहरी चिड़िया को वो अपने सोने के पिंजरे में कैद करके ही दम लेगा...

अब माधो सुनहरी के इंतज़ार में घात लगाकर बैठा रहता था...अब माधो का इंतज़ार एक प्रेमी नही एक शिकारी था...
अब उसकी बांसुरी किसी का दिल जीतने के लिए नही बजती थी...बल्कि किसी को फ़साने के लिए हथियार बन चुकी 
थी..
और एक दिन सुनहरी आई... माधो की बांसुरी सुनकर उसके कंधे पर आ बैठी... माधो तो टाक  में बैठा ही था...उसने
तुरंत उसे धर दबोचा और झाड़ियो में छुपाकर रखे सोने के पिंजरे में बंद कर दिया...फिर घमंड में चूर होकर हंसने लगा...


सुनहरी की आँखों से झर-झर आंसू झर रहे थे... उसका सुनहरा रंग डर से फीका पड़ गया था...उसके पंख पिंजरे से 
टकराकर लहू-लुहान हो रहे थे... उसने रोते-रोते  माधो से पूछा...'मैंने ऐसा क्या किया जो तुमने मुझे ये इनाम दिया है...'
माधो ने गुस्से में आकर कहा .. 'तुमने प्यार किया पर जब निभाने की बारी आई तो तुम गायब हो गयी,अब तुम्हे 
कहीं जाने नही दूंगा... अब तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी...'  और माधो पिंजरा उठाकर विजयी भाव से चल पड़ा...

रस्ते में अपनी थकान उतरने के लिए माधो थोड़ी देर एक पेड़ के नीचे रुका और सुस्ताने लगा...अब तक उसका 
गुस्सा, घमंड, जीत का उन्माद सब शांत हो चुका था...थोड़ी देर के लिए उसकी आँखों में वही माधो फिर से जग गया
जो की अपनी सुनहरी की एक मुस्कराहट पर जान वारने को तैयार हो जाता था... माधो ने जब रोती  हुई सुनहरी को 
देखा.... उसके कलेजे में तीर चुभने लगा.... उसने अपने हाथ बढाकर सुनहरी के पंखो को सहलाना चाहा तो दर्द के
मारे  सुनहरी चीख पड़ी... माधो के अंदर से किसी ने उसे दुत्कारा ..."देख माधव तुने सुनहरी की क्या हालत 
बना दी है...!!!" 
माधो सब कुछ भूल गया... उसने पिंजरा खोल दिया और सुनहरी को बाहर  निकाला... सुनहरी से पूछा कि जब तू
चली गयी थी तो वापिस क्यों आई...न तू वापिस आती न मै तुझे कैद करता...

सुनहरी ने कहा मै अपने उस माधो से मिलने आई थी जो सुनहरी के बिना जी नही पाता था.... 
जिसके साथ २-४ पल बिताककर हम दोनों खुश हो  जाया करते थे... आज मै अपने उस माधो को ये समझाने आई
थी...कि मै पिंजरे में नही रहना चाहती लेकिन तेरे साथ हमेशा रहना चाहती हूँ... पिंजरा मेरे प्रकृति के खिलाफ है...
मै कुछ ऐसा रास्ता निकलने को आई थी कि हम हमेशा साथ रह सके.... लेकिन मै गलत थी... 
हम कभी साथ नही हो सकते...और साथ होंगे...तो कोई एक ही खुश रह सकता है... क्योकि पिंजरा तुम्हारी ख़ुशी है
और खुला आकाश मेरा सपना...अनंत आकाश में उड़ते हुए जीना चाहती हूँ मै ...
इतना बोलकर सुनहरी मौन हो गयी ....


माधो को और कुछ समझ में आया या नही ये तो नही पता...लेकिन सुनहरी को ऐसी हालत में देखना उसे बिलकुल
मंजूर नही था... उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी...माधो ने झटपट  उसके जख्म पे जंगल की जड़ी बूटी लगायी ...
पट्टी बाँधी और उसको आज़ाद  कर, खाली पिंजरा लेकर घर आ गया...

गाव वाले और माधो के परिवार वाले पहली बार माधो को असफल होकर लौटते देख रहे थे... लेकिन माधो तो मानो 
अपने मन की कोठरी में बंद था.. बाहर  की दुनिया में क्या चल रहा है ...उसकी उसे कोई परवाह नही थी....

उस रात माधो के आँखों से सावन भादो की तरह आंसू बरस रहे थे...

अगले दिन माधो के घरवाले और गाव वाले उसे पागल कह रहे थे ...क्योकि सुबह -सुबह उठकर उनसे सारे 
बंद पंछियों को टोकरे से निकाल कर आज़ाद कर दिया था ...और शिकार पर भी नही गया...

माधो को लोग समझाते... तरह -तरह से उसको मानते...लेकिन माधो कोई कुछ हो गया था... क्या हुआ था, 
वो माधो को भी नही पता...

अब माधो जब भी जंगल जाता तो उसके हाथ में जाल, टोकरा और दाने नही होते थे... 
उसके हाथ में बस बांसुरी होती थी...जाकर देवदार के पेड़ के नीचे बैठा रहता और बांसुरी बजाता ... 
कभी आँखे बंद कर कल्पना में सुनहरी से बाते करता...कभी अपने आंसुओ की सौगात देता...
कभी खुश होकर पुकारता...कभी झूम -झूम कर गाता...

धीरे धीरे वो देवदार का पेड़ ही माधो का घर बन गया था...

उसके परिवार वाले और गाँव वालो से ये देखा नही जाता...एक दिन वो सब मिलकर माधो को वहां से ले जाने आये..
माधो ने कहा कि एक बार वो अपनी सुनहरी से मिल ले फिर आ जाएगा... लोग आश्वाशन पाकर चले गए....

उस शाम आसमान में फिर से काले- काले बादल घुमड़ आये थे  .... मुसलाधार बारिश शुरू हो गई थी ...माधो देवदार
के पेड़ के नीचे ही बैठा रहा ...बिजली कडकती रही ...बादल  गरजते रहे...और माधो अपनी सुनहरी को  पुकारता रहा..
.

रात के अंतिम पहर तक पेड़ के पत्तो के टूटने की आवाज....ठक-ठक की आवाज उस अँधेरे भयानक जंगले से आती
रही... न जाने माधो क्या कर रहा था...!!!

फिर उस बारिश की भयानक रात के अंतिम पहर में ठक ठक बंद हो गयी...माधो अँधेरे में पहाड़  की तरफ चल पड़ा...
उसके दोनों बाजुओ के साथ कोई भयानक साया सा चल रहा था...

माधो ने पेड़ के पत्ते और लकडियाँ काट काट कर जोड़ा था... और दो बड़े -बड़े पंख बनाये थे... और ऊंची पहाड़ी पर
जाकर उसने दोनों पंखो को अपने हाथो से अच्छी तरह बाँध  लिया और चोटी से दौड़ कर छलांग लगा दी थी...  

उस भयानक रात में  माधो का वो रहस्यमय साया चोटी से कूदकर कहाँ गया पता नही .... लेकिन जब बिजली 
चमकी तो  माधो एक पल को दिखा ...बहुत ही हैरान कर देने वाला था वो नज़ारा ...
माधो अपना पंख फैलाए बादलो के बीच उड़ रहा था...

सात दिन तक बारिश बरसती रही ... आठवे दिन जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाव वाले माधव को ढूँढने देवदार
के पेड़ के पास आये ...वहां माधो तो नही था...लेकिन दो छोटे- छोटे देवदार के पौधे निकले हुए थे...

इस बात को सालो बीत गए ....और लोगो के बीच कई तरह कि कहानियाँ फ़ैल गयी है...जितनी मुह उतनी बाते...
कोई कहता है कि वो देवदार के दो छोटे- छोटे पौधे माधो और सुनहरी हैं... कोई कहता है कि उस रात भगवान् ने
माधो को भी पंख दे दिए...और वो उड़कर सुनहरी के देश चला गया....कोई कहता है कि जब भी सावन- भादो की
अँधेरी रात  में मुसलाधार बारिश होती है और बिजली चमकती है तो माधो और सुनहरी बादलो के ऊपर साथ -साथ
उड़ते दिखाई देते  हैं...

इन् सब बातो को अफवाह मान सकते हैं...अंधविश्वास मान सकते हैं...लेकिन वो देवदार के दो पेड़ अद्भुत हैं...
ये सच है कि पूरे जंगल में हजारो पेड़ हैं... लेकिन सिर्फ उन दो पेड़ो पर ही हजारो चिड़िया आती  हैं...
पल भर सुस्ताती  हैं...और  फिर उड़ जाती हैं...  और कुछ लोगो का ये भी मानना  है कि जब कभी तेज़ हवा चलती
है तो माधो कि बांसुरी और सुनहरी की कूकती आवाज उन दो देवदार के पेड़ों के पास स्पष्ट सुनी जा सकती है...

जगताप पुर में जब भी कोई सैलानी आता है तो उन दो देवदार के पेड़ों के पास जाकर हजारो चिड़ियों के कलरव 
में माधो -सुनहरी की कहानी को सुनने की कोशिश ज़रूर करता है...