वो कौन सा शगल है,
जिसे तुम प्यार कहती हो !!!
मेरी समझ में नहीं आता
शांत झील कि स्तब्ध नीरवता
एक कंकड़ी तोड़ देती है
मचा देती है हलचल
झील तो फिर भी झील है
अछूती रह जायेगी
जब लहरों का श्रृंग-गर्त
छोर देगा उसका साथ
लेकिन मै ???
मेरे अंतस्थल पर जो तुमने कंकड़ी मारी है
उससे बनने वाला लहर-वृत्त फैलता जा रहा है
उसके श्रृंगो की उंचाई
उसके गर्तो की गहराई
बढती जा रही है
प्रतिपल
एक बवंडर
मेरे अंदर
कुछ भय, कुछ उत्सुकता
कुछ आनंद, कुछ अधीरता
जो कुछ भी मचल रहा है मेरे भीतर
क्या यही प्यार है !!!
Han Prashant babu..jo nirantar badh raha hai, vahi pyaar hai..
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